वैदिक काल या वैदिक सभ्यता ( Vedic Period)
वैदिक काल या वैदिक सभ्यता
1800 ईसा पूर्व के आस- पास हड़प्पा सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता, मोहनजोदड़ों सभ्यता का पतन हुआ हड़प्पा सभ्यता का मूल क्षेत्र "सप्तसिंधु" " क्षेत्र था
1800 ईसा पूर्व के बाद "सप्तसिंधु" क्षेत्र में जो नयी संस्कृति अस्तित्व में आयी उसकी जानकारी 4 वेदो- ऋंगवेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद से मिलती है , इस सभ्यता के के दौरान वेदो की रचना हुई इसलिए इसे वैदिक काल या वैदिक सभ्यता कहते है !
वैदिक शब्द वेद से बना है जिसका अर्थ ज्ञान है
वैदिक काल के निर्माता आर्य थे इसलिए इसे "आर्यसभ्यता" भी कहते है! "आर्य" एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ!
भारत में आर्य सर्वप्रथम सप्तसिंधु क्षेत्र में बसे जो क्षेत्र आधुनिक पंजाब तथा उसके आस- पास का क्षेत्र था।
सिंधु घाटी सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता, मोहनजोदड़ों सभ्यता इसे भी पढ़े!
मूल निवास स्थान
- मैक्स मूलर - मैक्स मूलर के द्वारा दिया गया मत सबसे प्रचलित है मैक्स के अनुसार आर्य मध्य एशिया के मूल निवासी थे!
- डॉ. सम्पूर्णानंद - का कहना है की आर्य आल्प्स पर्वत जो की यूरेशिया का भाग है उसी क्षेत्र से आर्य भारत आये
- बाल गंगाधर - इनके अनुसार आर्य आर्कटिक( उत्तरी ध्रुव) से आये थे
- दयानन्द सरस्वती - इनके अनुसार आर्यो आगमन तिब्बत क्षेत्र से हुआ था
ऋंगवेदिक काल
- ऋंगवेदिक आर्यो की जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत ऋंगवेद है
- ऋंगवेद में 25 नदियों का उल्लेख है जिसमे सिंधु नदी का उल्लेख सबसे ज्यादा है इसका अर्थ है की ऋंगवेदिक आर्य सिंधु नदी के आस- पास ही रहे होंगे
- ऋंगवेद में सप्तसिंधु क्षेत्र की 7 नदियों का उल्लेख भी मिलता है जो है- सिंधु, वितस्ता( झेलम), असिक्नी ( चेनाब), पौरूषंणी ( रावी), बिपाशा ( व्यास), शत्रुदी ( सतलज), सरस्वती!
- ऋंगवेदिक काल में आर्यो की गतिविधियों की पूर्वी सीमा गंगा नदी तक थी अर्थात गंगा नदी के पूर्व में ऋंगवेदिक आर्य प्रवेश नहीं कर पाए
- सरस्वती नदी जिसे ऋग्वेद में नदितमा(नदियों की माँ ) कहा गया है! यह आर्यो की सबसे पवित्र नदी थी तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी सिंधु थी!
ऋंगवेदिक काल मे राजनीतिक जीवन
- ऋंगवेदिक संस्कृति ग्रामीण संस्कृति थी। यह कई छोटे-छोटे कबीलो मे विभक्त थे। ऋग्वेदिक साहित्य मे कबीलो "जन " कहा गया है। कबील के सरदार को " राजन " कहा गया है जो कबीलो का मुखिया था।
- राजा को जनस्यगोपा भी कहा गया है जिसका अर्थ है कबीले का रक्षक।
- राजा और राज्य की संकल्पना उत्तरवैदिक काल मे उभरी जब महत्व बड़ा।
- राजन के पास असीमित अधिकार नहीं थे।
- प्रजा द्वारा राजा को स्वेच्छा से दिए गए उपहार के लिए " बलि " शब्द का प्रयोग है।
ऋग्वेदिक काल मे आर्थिक जीवन
- ऋंगवेदिक काल पशुपालन कृषि के मुकाबले अत्यधिक महत्वपूर्ण था।
- ऋग्वेदिक काल मे आर्य भ्र्मणशील और युद्धरथ थे वह घुमंतू जीवन जीते थे जिस कारण दो कबीलो मे युद्ध हो जाया करता था।
- ऋग्वेदिक काल मे गाय का महत्व अधिक था
- गाय शब्द ऋंगवेद मे 176 मिलता है गाय ही संपत्ति की इकाई थी गाय के लिए युद्ध हुआ करते थे।
- गाय को ऋग्वेद में "अघन्या " ( न मारने योग्य ) शब्द का प्रयोग किया गया है।
ऋग्वेदिक कालीन सामाजिक जीवन
- ऋग्वेदिक मे परिवार पितृसत्तात्मक था।
- समाज मे वर्ण- व्यवस्था रंग के आधार पर नहीं बल्कि कर्म पर आधारित थी। ऋग्वेद के 10वे मंडल के "पुरुष सूक्त " मे 4 वर्णो ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का उल्लेख है।
- समाज की सबसे छोटी इकाई परवार था, पुरुष मुखिया परिवार पर पूरा नियंत्रण था।
- इस काल में केवल "यव" ( जौ ) का ही उल्लेख मिलता है।
- "सोम " आर्यो का मुख्य का पेय था जो वह हिमालय से प्राप्त करते थे।
समाज मे स्त्रियों की स्थिति
- समाज मे स्त्रियों की दशा अच्छी थी। इस समय समाज मे विधवा विवाह , नियोग प्रथा तथा पुनर्विवाह का प्रचलन था। लेकिन"पर्दा प्रथा""बाल विवाह " तथा सती-प्रथाप्रचलित नहीं थी ।
- पुरषो की तरह कन्याओ का भी"उपनयन संस्कार "( शिक्षा प्राप्त करने से पहले का एक संस्कार) होता था और इसकर पश्चात वह शिक्षा प्राप्त करती थी।
- कन्याओ को अपना वर चुनने की भी आजादी थी तथा कोई कन्या चाहे तो वह जीवन भर अविवाहित रह सकती थी।
- परन्तु इस काल मे मिलने वाले कुछ साक्ष्य महिलाओ की अच्छी स्तिथि पर सवाल पैदा करते है। वह है -
- 1. नियोग प्रथा: यह वह प्रथा थी जब महिलाओ के पति की मृत्यु होने के बाद उसका विवाह उसके देवर से किया जाता था। यह विवाह केवल संतान प्राप्ति के लिए होता था, इस विवाह की मान्यता केवल 1 संतान तक ही थी संतान के जन्म के बाद इस विवाह को अमान्य या समाप्त कर दिया जाता था।
- 2. बहुपति विवाह: इस प्रथा के अंतर्गत एक स्त्री के कई पति भी हो सकते थे।
- नियोग प्रथा से उत्पन संतान को "क्षेत्रज " कहा जाता था।
ऋग्वेदिकालीन धार्मिक जीवन
- ऋग्वेदिक काल मे धार्मिक जीवन बहुत ही सरल था।
- ऋग्वेदिक कल मे देवताओ में सर्वाधिक महत्व " इन्द्र " को तथा उसके बाद " अग्नि " व " वरुण " को महत्व प्रदान था।
- ऋग्वेद मे इन्द्र को "पुरन्दर " अर्थात "किले को तोड़ने वाला" कहा गया है ऋग्वेद मे 250 सूक्त इन्द्र पर है।
- ऋंगवेद में "देवमण्डली" पुरुष प्रधान थी देवियों का गौण स्थान है
उत्तर वैदिक काल ( 1000 -600 ईसा पूर्व )
उत्तर वैदिक कालीन आर्थिक जीवन
- उत्तर वैदिक काल में लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हो गया , लोहे के प्रयोग का सर्वप्रथम साक्ष्य 1000 ईसा पूर्व 'उत्तर प्रदेश' के "अंतरजीखेड़ा" से मिला है।
- आर्य पशुपालन से निकल कर " कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था "में प्रवेश कर गए जिससे स्थिरता का प्रमाण मिलता है
- उत्तर वैदिक साहित्य में चावल, गेहूँ, उड़द- मूँग समेत कई अनेक अनाजों का उल्लेख मिलता है। अंतरजीखेड़ी से भी चावल, गेहूँ, जौ के प्रमाण मिले है।
- कृषि का विकास जैसे- जैसे बड़ा भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार की भावना बड़ी।
- उत्तर वैदिक काल चार प्रकार के मृदभाण्डों का प्रयोग करते थे जिसमे सबसे ज्यादा प्रयोग " लाल मृदभांड " का होता था। PGW ( Painted Grey Ware )- "चित्रित धृसर मृदभाण्ड" - जिनका प्रयोग आमतौर पर धनी लोग ही करते थे
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राजनैतिक जीवन
- इस काल में " राजन " राजा के अधिकारों में वृद्धि हुई। कबीले का मुखिया अब " प्रदेश "पर शासन करने लगा। सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में ही राज्य और राष्ट्र की संकल्पना का उद्य हुआ।
- राजा का पद वंशानुगत हो गया।
- राज्य एव राजा की दैवीय उत्पत्ति का विवरण "ऐतरेय ब्राह्मण" में मिलता है।
- उत्तर वैदिक काल में सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ " अश्वमेघ यज्ञ " था, यह राजा की शक्ति और प्रतिष्ठा से सम्बंधित था।
- उत्तर वैदिक काल मे यज्ञ के कर्मकांडो के लिए पशुबलि की प्रथा बढ़ गयी थी।
- इस काल मे राजा अपनी प्रजा से स्वेछिक उपहार की जगह अनिवार्य कर वसूलने लगा। जो ऋंगवेदिक काल मे स्वेछिक उपहार था। अनिवार्य कर को - भाग, शुल्क, बलि के नाम से जाना जाता था।
सामाजिक जीवन
- उत्तर वैदिक काल में " वर्ण-व्यवस्था " पूर्ण रूप से स्थापित हुई तथा समाज स्पष्ट रूप से चार वर्णो - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में बटा था।
- इस काल में शूद्रों की स्थिति अच्छी नहीं थी उन्हें "तीनो वर्णों का सेवक" बताया गया है।
- राज्य का संचालन और रक्षा क्षत्रियो का काम था वैश्य वर्ग का कार्य उत्पादन तथा कृषि करना था वैश्य वर्ग ही राज्यों को " कर ( Tax ) देता था इसलिए वैश्य वर्ग को "अन्यस्थबलिकृत " ( दूसरे को कर देने वाला )भी कहा जाता था।
- ब्राह्मण वर्ग धार्मिक कार्य करता था चूकि ब्राह्मण एक अनुत्पादक वर्ग था इसलिए समाज में अपने आपको सर्वोत्तम बनाये रखने के लिए जटिल यज्ञ कर्मकाण्डो की उतपत्ति की, ताकि लोगो के मन में अपने ज्ञान की छाप छोड़ सके।
- इस काल में धार्मिक एव यज्ञीय कर्मकांडो में जटिलता आयी इससे ब्राह्मणो की शक्ति और अधिक बढ़ गयी।
- इस काल में शुद्रो का " उपनयन संस्कार " ( शिक्षा प्राप्त करने से सम्बंधित संस्कार ) बंद कर दिया गया अर्थात शुद्रो को शिक्षा से भी वंचित रखा गया।
स्त्रियों की दशा
- उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी उन्हें धन सम्बन्धी तथा किसी प्रकार के राजनैतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे।
- " मैत्रायणी संहिता " में स्त्रियों को तीन बुराइयों में रखा गया है - 1. सूरा ( शराब ) 2. पासा ( जुआ ) 3. स्त्री अर्थात स्त्री की तुलना जुआ और शराब से की गयी है
- " ऐतरेय ब्राह्मण " में पुत्री को समस्त दुखो का कारण बताया गया है।
- इस काल में स्त्रियों का " उपनयन संस्कार " बंद कर दिया गया था।
- नियोग प्रथा अब भी प्रचलित थी। परंतु सती प्रथा और पर्दा प्रथा जैसी बुराइयों का जन्म मध्यकाल में हुआ।
- लेकिन इस काल में स्त्रियों की दशा इतनी खराब नहीं थी जितनी सूत्रकाल ( छठी शताब्दी से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ) में दिखाई देती है
आश्रम व्यवस्था
- उत्तर वैदिक काल में सर्वप्रथम आश्रम व्यवस्था की शुरुआत हुई।
- " जाबालोपनिषद " में सर्वप्रथम चार आश्रमों - ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ एव संन्यास का वर्णन मिलता है।
- आश्रम कोई जगह नहीं थी बल्कि यह प्रत्येक हिन्दू के जीवन की अवस्था थी।
- इस व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक हिन्दू के जीवन को 100 वर्ष का माना गया है तथा इसे 4 अवस्थाओं में बाटा गया है प्रत्येक अवस्था की अवधि 25 वर्ष थी।
- प्रत्येक आश्रम जीवन की एक दशा है जिसमे रहकर एक मानव कुछ निश्चिन्त कर्तव्यों को पूरा करता है।
- सभी आश्रमों में से गृहस्थ आश्रम को सर्वोत्तम स्थान प्राप्त था।
ब्रह्मचर्य आश्रम:- इसकी अवधि मनुष्य के शुरूआती 25 वर्ष थे।
- यह ज्ञान और शिक्षा प्राप्त करने का समय था जिसका आरम्भ उपनयन संस्कार से होता था।
- 25 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करने वाले शिष्य/ शिष्या को ब्रह्मचारी/ब्रह्मवादिनी कहा जाता था इनका अत्यधिक कठोर होता था इन्हे कठोर नियमो का पालन करना होता था जिसमे - मांस खान, मदिरा पान, स्त्री संपर्क इत्यादि से दूर रहना तथा गुरु के ही समीप रहना शामिल था।
- पच्चीसवें वर्ष में " समावर्तन संस्कार " द्वारा ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति होती थी
- आश्रम का प्रचलन सभी वर्णो में था , शेष तीन आश्रमों का प्रचलन केवल तीन वर्णो - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों के लिए ही था।
- हिन्दू धर्म में इस आश्रम में तीन ऋणों ( उधर ) से मुक्ति पाना था यह ऋण इस प्रकार है -
- ऋषि ऋण - वैदिक ग्रंथो का अध्यन करने से मनुष्य ऋषि ऋण से मुक्त हो जाता था ।
- देव ऋण - यज्ञ करने से मनुष्य देव ऋण से मुक्त हो जाता था।
- पितृ ऋण - पुत्र संतान उत्पन्न करने से मनुष्य पितृ ऋण से मुक्त हो जाता था।
- समाज में गृहस्थ मनुष्य को "पंचमहायत यज्ञों " को करना अनिवार्य होता था जो इस प्रकार है - ब्रहा यज्ञ , पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, मनुष्य यज्ञ या नृपज्ञ।
- इसमें मनुष्य संसारिक मोहमाया से दूर ईश्वर पर अपना ध्यान केंद्रित करता था।
- हालांकि समाज से उसका संबंध अब भी बना रहता था।
- इसका अर्थ है " पूर्ण त्याग " घर व समाज का त्याग करके वनों मे जा कर ईश्वर में अपना ध्यान लगाते हुए मृत्यु को प्राप्त हो।
धार्मिक जीवन
- उत्तर वैदिक काल मे ऋंगवेदिक काल के देवता - इन्द्र,वरुण, अग्नि का महत्व कम होता है तथा इसका स्थान " रूद्र "(शिव ) , "प्रजापति "( ब्रहाा ), विष्णु इत्यादि देवता ग्रहण करते है।
- इस काल मे कर्मकाण्ड यज्ञीय विदिविधान और यज्ञो मे पशुबलि, आश्रम व्यवस्था , संस्कार, दर्शन इत्यादि चीजे बड़े पैमाने पर होने लगी थी।
- इस काल मे प्रमुख देवता " प्रजापति " को मन गया है।
- इस काल मे जादू-टोना तथा भूत -प्रेतों मे भी लोगो का विश्वास काफी बढ़ गया।
वैदिक साहित्य
- वेदी साहित्य मे 4 वेद - ऋंगवेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद है, इन सभी वेदो के अपने ब्रह्मण ग्रन्थ, आरण्य और उपनिषद साहित्य है यह सभी वैदिक साहित्य मे शामिल है
- उपवेद और वेदांग इनकी रचना वैदिक काल के बाद के काल मे हुई इन्हे "वैदिकोत्तर साहित्य " भी कहते है।
- वैदिक साहित्य प्रारंभ मे लिखे नहीं गए , यह ऋषियो द्वारा कई पीढ़ियों तक सुनकर व सुनकर आगे बढ़ते रहे इसे "श्रुति " कहा जाता है।
- इसे " अपौरुक्षेय और नित्य " भी कहा जाता है। क्योंकि यह माना जाता है इनकी रचना स्वयं ईश्वर के द्वारा की गयी यही: कारण था की प्रारम्भ में वैदिक साहित्य लिखे नहीं गए।
- यह प्राचीनतम वेद है। इसमें 10 मंडल तथा 1,028 सूक्त है
- ऋंगवेद मे देवताओ की उपासना करने वाले गीत है जो " सूक्त " के रूप में लिखे गए है।
- यह पद्यात्मक शैली मे है इसके तीसरे मंडल मे गायंत्री मन्त्र का उल्लेख है जो सूर्य से सम्बन्धित देवी सावित्री को सम्बोधित है।
- ऋंगवेद के 10 मंडलो मे 2 से लेकर 7वा मंडल सबसे प्राचीन है। 1,5 ,9 ,10 वा मंडल बाद मे जोड़ा गया है।
- यज्ञ के दौरान गाये जाने वाले गीतों का संकलन है।
- सामवेद के गीतों को गाने वाला पुरोहित " उद्गाता " कहलाया जाता था।
- इसमें 1549 मंत्र है। इनमे केवल 75 नए है, बाकि मंत्र ऋंगवेद से लिए गए है।
- इस वेद को भारतीय संगीत का प्रारंभ माना जाता है क्योकि संगीत के सात स्वरों का उल्लेख इस वेद में मिलता है।
- इसमें यज्ञीय कर्मकांडो, विधियों का उल्लेख है।
- यह ग़द्य तथा पद्य दोनों में रचित है।
- यज्ञ में बढ़ा आने पर उसका निवारण करने वाले मंत्रो का संकलन इसलिए इसे "ब्रह्मवेद" या "श्रेष्ठवेद" भी कहते है।
- इसमें जादू- टोना, वशीकरण, भूत- प्रेतों, तंत्र-मंत्र दिए गए है।
- इसमें विभिन्न प्रकार कि औषधियों, औषधि प्रयोग का वर्णन है।
- अधिकांश मंत्र " प्रेत- आत्माओं " से मुक्ति का मार्ग बताते है।
- ब्राह्मण साहित्य की रचना 4 वेदों को समझने के लिए की गई है प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण ग्रंथ है यह गद्य शैली में है।
- ब्राह्मण साहित्य उत्तर- वैदिक कालीन जीवन पर प्रकाश पड़ता है।
- ऐतरेय ब्राह्मण में सबसे पहले "राजत्व की दैवीय उत्पत्ति " या सिद्धांत मिला है।
- ऐतरेय ब्राह्मण से उत्तर- वैदिक काल में बड़े राज्यों की जानकारी मिलती है।
- शतपथ " शुक्ल यजुर्वेद " का ब्राह्मण ग्रंथ है तथा यह सबसे बड़ा, महत्वपूर्ण और प्राचीन ग्रन्थ है।
- पुनर्जन्म की कल्पना शतपथ ब्राह्मण में ही पहली बार दिखाई देता है। जिसके कारण उत्तर वैदिक काल में पारलौकिक उद्देश्य महत्व्पूर्ण हुए तथा यज्ञीय कर्मकांडो का महत्व बड़ा उल्लेख मिलता है।
- कृषि से संबंधित क्रियाओं जैसे - जुताई, बुआई, कताई का उल्लेख मिलता है
- शिक्षा- वेदो के शुद्ध उच्चारण करने के लिए इसकी रचना हुई।
- कल्पसूत्र- इसमें वैदिक कर्मकांडो की व्याख्या की गयी है। जिसके तीन भाग है-1) श्रोत सूत्र 2 ) गृह्य सूत्र 3 ) धर्म सूत्र
- निरुक्त- इसमें वैदिक शब्दों की दोबारा उत्पत्ति को बताया गया है। जिसमे व्यास द्वारा रचित निरुक्त सबसे प्राचीन ग्रंथ है।
- व्याकरण- वेदो की भाषा को वैज्ञानिक शैली प्रदान करने के लिए इसकी रचना की गयी।
- छंद- वेदो को छंद के रूप मे लिए इसकी रचना हुई पिंगल द्वारा प्राचीनतम ग्रन्थ लिखा गया।
- ज्योतिष- लगधमूनि द्वारा रचित यह प्राचीनतम ग्रन्थ है।
- आयुर्वेद - यह ऋंगवेद का उपवेद है इसमें चिकित्सा से सम्बंधित विवरण है।
- गन्धर्ववेद - यह सामवेद का उपवेद है इसमें संगीत कला से सम्बन्धित विवरण है।
- धनुर्वेदे - यह यजुर्वेद का उपवेद है इसमें युद्ध कला से सम्बन्धित विवरण है।
- शिल्पवेद - यह अथर्वेद का उपवेद है इसमें शिल्पकला से सम्बन्धित विवरण है।
- मनुस्मृति - यह सबसे प्राचीन ग्रंथ है इसकी रचना शुंगकाल माय 200 ईसा पूर्व से 200 ईसवी के बिच हुई। यह धर्म के सम्बन्ध मे सबसे मह्त्वपूर्ण और प्रमाणिक ग्रंथ है।
- यञवाल्क्य स्मृति - इसकी रचना सातवाहन काल मे हुई।
- नारद स्मृति -इसकी रचना गुप्त काल मे हुई।
- विष्णु स्मृति - इसकी रचना गुप्त काल मे हुई।
- देवल स्मृति - इसकी रचना पूर्व मध्यकालीन/ राजपूतकाल मे हुई।
- मतस्य पुराण से सातवाहन वंश के बारे मे जानकारी मिलती है।
- विष्णु पुराण से मौर्य वंश के बारे मे जानकारी मिलती है।
- वायु पुराण से गुप्त वंश के बारे मे जानकारी मिलती है।
Most important information ...thanks
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